सनातन धर्म शाश्वत होने से सर्वश्रेष्ठ धर्म है। गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने सनातन धर्म के बारे में कहा है - "वरिष्ठे अखिलधर्मेषु धर्मं एव सनातन:। जायन्ते सर्व धर्मास्तु शाश्वतो हि सनातन: ।। "
संसार के सभी धर्म किसी न किसी व्यक्ति द्वारा चलाये गए जैसे महात्मा बुद्ध द्वारा बोद्ध धर्म , ईशा-मसीह द्वारा ईसाई धर्म आदि। परन्तु सनातन धर्म उतना ही शाश्वत है जितना स्वयं भगवान है। गीता में अर्जुन ने भगवान की स्तुति करते हुए सनातन धर्म का रक्षक बताया -- "त्वमव्ययः: शाश्वत धर्मगोप्ता सनातन: त्वम् पुरुषो मतो मे। " भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने को सनातन धर्म का स्वरूप बताया है - " ब्राह्मणो हि प्रतिष्ठां शाश्वतस्य च धर्मस्य। "
भगवान सनातन धर्म की रक्षा के लिए स्वयं अवतरित होते है - यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत । अभ्युत्थानं हि धर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ।।
हम सभी ईश्वर का अंश जीवात्मायें है जिनको अमृतपुत्र कहा गया है - "अमृतस्य पुत्रा :" और सभी प्राणियों में भगवान समान रूप से रहते है -
ईश्वर अंश जीव अविनाशी । चेतन अमल सहज सुखरासी।। सभी सनातन है - " जीवभूत: सनातन: " और भगवान कहते है - अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूतेषु स्थित: । भगवान का किसी प्राणी से कोई भेदभाव नहीं है। वह अन्तर्यामी रूप से सभी के हृदय में निवास करते है। सनातन धर्म को संतो महापुरुषों द्वारा लोककल्याण के लिए बराबर उपदिष्ट किया जाता रहा है। इसलिए सत्संग की महिमा को ईश्वरानुभूति के लिए सर्वश्रेष्ठ बताया गया है - "बिनु सत्सॅंग विवेक न होई "। जीवन की वास्तविकता को समझने के लिए सत्संग की अनिवार्यता होती है। मनुष्य योनि को साधना अर्थात् आध्यात्मिक अभ्यास के लिए सबसे उपयुक्त कहा है अन्य योनियो में ईश्वरानुभूति या आत्मानुभूति संभव नहीं है। इस प्रकार जैसे -जैसे अभ्यास की गहराई बढ़ती है वैसे-वैसे हमको समझ में आता है कि जीव क्या है, आत्मा या परमात्मा क्या है और हम जिस जगत् में रहते है उसका यथार्थ स्वरूप क्या है। सनातन धर्म का निरंतर विस्तार करने वाले जगतगुरु आदि शकंराचार्य कहते है - कि हम सभी चिदानंद रूप शिव है , न हमारा कोई वर्ण है, न गोत्र और न ही कोई जाति -
" न मृत्युर्न शंका न मे जातिभेद : पिता नैव मे नैव माता न जन्म: ।
न बन्धुर्न मित्रं न गुरुर्न शिष्य: चिदान्दरूप: शिवोहम् शिवोहम्।। "
जब तक हमारी समझ नहीं बढ़ेगी तब तक न हमको जीवन का उद्देश्य समझ में आएगा और न ही वर्ण व्यवस्था का सही प्रारूप। ध्यान से समझना होगा कि आकाश में सूर्य , चंद्र , सितारे , ग्रह-नक्षत्रादि सभी अपनी -अपनी कक्षा में सुव्यवस्थित तरीके से गतिमान है। इस सुनियोजित और सुव्यवस्थित कार्य में ईश्वर की बुद्धिमत्ता, ऊर्जा, व्यवस्था और गतिशील बनाना ये चार कार्य घटित हो रहे हैं । बुद्धि के रूप में ईश्वर का मस्तिष्क, शक्ति जीवन, गति शरीर और सुव्यवस्था ब्रह्माण्ड की योजना है। ये चारो कार्य मानव- जीवन के रूप में मिश्रित है। बुद्धि से शिर , ब्रह्मांडीय ऊर्जा से शरीर को जीवन , गति से पैर और सुनियोजित शक्ति से शरीर का संचालन होता है। इन्ही चारो से वर्ण-व्यवस्था निर्धारित हुई। शिर (बुद्धि) से स्वभाविक ब्राह्मण, शक्ति से स्वाभाविक क्षत्रिय, व्यवस्था से स्वभाविक वैश्य(व्यापारिक नेतृत्व) तथा इन सबको गति देने वाला श्रमिक स्वाभाविक रूप से शूद्र कहलाया। अत: जब समझने का प्रयास किया जाय तो बात स्पष्ट है कि ब्रह्माण्ड के संचालन में कहीं कोई कमी नहीं है चाहे वह सौरमंडल हो, चाहे कुछ और सभी कुछ परमात्मा ने पूर्णरूप से सुव्यवस्थित ढंग से रचा है। फिर पृथ्वी पर क्यों अव्यवस्था होगी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र सभी विराट भगवान् के अंग है।
यहाँ पर समग्र हिन्दूसमाज को सुव्यवस्थित, अनुशासित, प्रगतिशील व सुखपूर्वक जीवनयापन करने के लिए चार वर्णाश्रमों में सुनियोजित किया गया । समाज को वर्ण-व्यवस्था (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र) तथा आश्रम व्यवस्था (ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ व सन्यास) के अन्तर्गत अनुशासन के ढांचे में आबद्ध किया गया। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं - चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टः गुण कर्म विभागशः (गीता, 4.13) अर्थात् गुण और कर्म के अनुसार मैंने चार वर्णों का सृजन किया। बिखरे हुए जन-समुदायों में बढ़ती संख्या के साथ संपर्क प्रगाढ़ होते रहे। सामाजिक संगठन प्रारंभ में जाति-विभाग के रूप में प्रचलित हुआ जिसमें सभी समुदायों को एक सामाजिक व्यवस्था में गूंथा गया था। वैदिककाल में आर्यों का ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य आदि जातियों में विभाजन नहीं हुआ था। वैदिक मन्त्रो के रचयिता ऋषि वाणिज्य या पशुपालन भी करते थे। महाभारतकाल में जाति-विभाग का मूल आधार कर्म था। भृगु ने उत्तर दिया कि ब्रह्मा से उत्पन्न होने के कारण सारा संसार ही ब्राह्मण था। जो ब्राह्मणोचित धर्म को छोड़कर विषय-भोगी, क्रोधी, तीव्र स्वभाव वाले और साहस का कार्य करने लगे, वह क्षत्रिय कहलाए। जो गौवों की सेवा व खेती से जीविकोपार्जन करने लगे, व्यावसायिक कार्यों में लग गए, उन द्विजों को वैश्य कहा गया। विराट पुरुष (ब्रह्म ) जो सत्य के मार्ग से पतित होकर हिंसा और असत्य के प्रेमी हो गए, वे शूद्र कहलाए।
ऋग्वेद में परमात्मा के मुख से ब्राह्मण, बाहु से क्षत्रिय, उरु (जन्घा ) से वैश्य तथा चरण प्रदेश से शूद्र की उत्पत्ति बतायी गयी है। ध्यान देने योग्य है कि विराट पुरुष (ब्रह्म) के चिन्मय (आनन्दमय पवित्र) उपर्युक्त शरीर के चारों हिस्से चिन्मय शरीर के अभिन्न अंग हैं यदि यह कहा जाय कि कोई जाति उच्च है या नीच है तो यह इस शरीर रूप परमात्मा का अपमान होगा। शुद्र यह कहे कि मेरा स्थान पैर होने से मैं समाज में अपवित्र हो गया तो यह मात्र भ्रम होगा क्योंकि इसका कोई आध्यात्मिक वैज्ञानिक आधार नहीं है। हम इस बात से परिचित हैं कि चाहे वह भगवान की बात हो या फिर किसी महापुरुष की पूजा मुख की नहीं पैर की ही होती है। स्मरण रखने की बात है कि किसी भी एक अंग के अभाव में शरीर रूपी समाज पंगु है।
अगर वैदिकाकाल को देखें तो प्रारंभ में तो जाति का बंधन ही नहीं था। ऋषि बनकर मंत्र-रचना करने के लिए ऋषि पुत्र होना जरूरी नहीं था। ऐसा देखा गया है कि एक ही मनुष्य कई जातियों के योग्य कर्म करता था। व्यक्ति जो कर्म करने लगता है, तदनुसार उसकी जाति अनायास ही बन जाती थी। दसवीं शताब्दी ईसवीं तक चारों वर्णों के लोग एक-दूसरी जाति में वैवाहिक संबन्ध कर सकते थे। कालांतर में एक परिवार का एक ही व्यवसाय हो गया और उसी प्रकार वैवाहिक सम्बन्ध भी समान व्यवसाय के लोगों तक सीमित हो गया। इस प्रकार समाज में जाति व्यवस्था को समाज की एकता व समरसता के लिए बनाया गया था। इसके अर्थ को समझना इतना सहज नहीं है। यह बात अलग है कि आज निजी स्वार्थं लिए कुछ लोग अशिक्षा व संकुचित विचारों के कारण ईर्ष्या-द्वैष के शिकार हैं या फिर राजनैतिक लाभ के लिए समाज को 'बांटों और शासन करो' का रास्ता अपना लिए हैं।
स्कन्दपुराण में कहा है कि जन्म से सभी लोग शूद्र ही पैदा होते हैं, संस्कारों से वे परिष्कृत होकर द्विज अर्थात् द्विजन्मा (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य) बनते हैं-
जन्मना जायते शूद्रः संस्कारात् द्विजो भवेत् । वेद पाठात भवेत् विप्रः ब्रह्मं जानाति ब्राह्मणः ।।
अगर गहराई से शास्त्रीय विवेचन किया जाय तो देखेंगे कि आत्मप्रकृति के सत्त्व- रज-तम आदि तीन गुणों ने कर्मों के विभागकर उन्हें चारों वर्णों में बाँट दिया है। यह विभाजन ठीक उसी प्रकार का है जैसे पिता द्वारा अर्जित धन उसके पुत्रों में बाँटा जाय, अथवा जैसे स्वामी अपने सेवकों को भिन्न-भिन्न रूप से व्यापार बाँट देता है। सम्पूर्ण जगत् में पुरुष (ईश्वर) और प्रकृति (ईश्वर की शक्ति) का जो सिद्धान्त कार्य कर रहा है उसमें प्रकृति के गुण- सत्त्व, रज और तमस ही इस संसार की प्रक्रिया में व्याप्त हैं। प्रकृति के गुणों ने इन चारों वर्णों में कर्मों का बँटवारा किया। उनमें से सत्त्व ने अपने सम-विषम भाग से ब्राह्मण और क्षत्रिय दो उत्तम वर्ण, शौच और सत्त्व मिश्रित रज से वैश्य तथा तम मिश्रित रजस के आधार पर शूद्र का वर्गीकरण हुआ। शम, दम, तपः, क्षमाशीलता, सरलता, ज्ञान, विज्ञान तथा आस्तिक्य आदि नौ गुण जिसमें हैं वही ब्राह्मण है। शौर्य, तेज, धैर्य, युद्ध दक्षता, असाधारण युद्ध कौशल अर्थात् कभी भी शत्रु को पीठ न दिखाना, दान तथा ईश्वरभाव - ये सात गुण क्षत्रिय होने के परिचायक हैं। वैश्य जाति के कर्मों में -
कृषिगोरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम्। परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम्।। (गीता 18.44)
अर्थात् भूमि, बीज, हल इत्यादि पूँजी के आधार पर लाभ कमाना, खेती पर उपजीविका चलाना, गाय पालन का उद्यम करना, सस्ते में खरीदी हुई वस्तु मँहगी करके बेचना आदि सब वैश्यों का कर्म-समुदाय है। यह वैश्य जाति का स्वाभाविक कर्म है। वैश्य क्षत्रिय और ब्राह्मण इन दोनों द्विज वर्णों की सेवा सहायता करना शूद्र कर्म है। इस प्रकार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र अपने कर्मो के अनुसार स्वाभाविक तौर पर उसी जाति के हो जाते हैं। सनातन वैदिक धर्म की इतनी अद्भुत व्यवस्था है कि यदि ब्राह्मण किसी को उसके शुद्ध कर्म में सेवा देता है तो वह शुद्र होगा , शूद्र यदि पढ़कर अध्ययन-अध्यापन कर रहा है तो वह ब्राह्मण कर्म है प्रधानता कर्म, व्यवहार और आचरण की है। कबीर दास जी कहते हैं -
ऊँचे कुल का जन्मया ऊँचे कर्म न होया। सुबरन घट मदिरा भरया संतन निन्दा होय।।
आज के हिन्दू समाज में अनेक विषमताएं हैं - जाति-पाति, उच्च नीच वर्ण आदि अनेक ऐसे मुद्दे हैं, जिनमें हिन्दू समाज बटा हुआ है, जबकि इतिहास में ऐसी ही विषमताएं बिलकुल भी नहीं थी। उत्तर वैदिक काल में, हिन्दू समाज में ऐसी विषमताएं नहीं थी। अगर होती तो हिन्दू समाज इतने सामर्थ्यशाली स्वरूप में, तत्कालीन विदेशी आक्रांताओं के सामने खड़ा ही नहीं रहता। उस समय का हिन्दू समाज समरस था और इसीलिए एकरूप था। हमारे पुरखों ने 'समता' के तत्व को प्रारंभ से ही माना था। समता, बंधुता यह हमारे 'मूल्य' थे , सबसे प्राचीन ग्रन्थ ऋग्वेद के दसवे अध्याय में इसके अनेक उदाहरण मिलते हैं। निम्न वेदमंत्र समानता को दर्शाता है - समानी व आकूतिः समाना हृदयनि वः । (ऋग्वेद १०/१९१) इसका अर्थ हैं- हमारी अभिव्यक्ति एक जैसी, हमारी सोच एक जैसी, हमारे अन्तःकरण एक जैसे रहे (जिसके कारण हम संगठित रहे) इसी श्लोक में आगे लिखा हैं -
संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम् । देवा भागं यथा पूर्वे सञ्जानाना उपासते ।।
अर्थ : हम सब एक साथ चले, आपस में संवाद करे, हमारे मन एक हो, जिस प्रकार पहले के विद्वान अपने शुभ कार्य के लिए एक होते थे, उसी प्रकार हम भी साथ में मिलते रहें । इसी प्रकार एक और मन्त्र है -
समानो मन्त्रः समतिः समानी समानं मनः सतचित्तमेषाम् । समानं मन्त्रमभिमन्त्रये वः समानेन वो हविषा जुहोमि ॥ (ऋग्वेद अध्याय ८/४९/३)
अर्थ - इन (मिलकर कार्य करने वालों) का मन्त्र समान होता है अर्थात् ये परस्पर मंत्रणा करके एक निर्णय पर पहुँचते हैं, चित्त सहित इनका मन समान होता है। मैं तुम्हें मिलकर समान निष्कर्ष पर पहुँचने की प्रेरणा (परामर्श) देता हूँ. तुम्हें समान भोज्य प्रदान करता हूँ। इनमे कही भी जाति का उल्लेख नहीं हैं क्योंकि हमारे मूल ग्रंथों में कही भी जाति के आधार पर भेदभाव का एक भी उदाहरण नहीं मिलता हैं।
उस समय वर्ण व्यवस्था को मानने वाला वर्ग समाज में था। लेकिन यह चातुर्वर्ण्य व्यवस्था, जन्म के आधार पर नहीं थी। वह गुणों के आधार पर थी, वह वर्ण-व्यवस्था जन्मना (जन्म) नहीं थी स्वाभाविक कर्म के आधार पर थी) इसके अनेक उदाहरण मिलते हैं। प्राचीन काल के जिनको हम' प्रकांड पंडित मानते हैं, ऋषि-मुनि मानते हैं, ऐसे अधिकांश विद्वानों का जन्म ब्राह्मण कुल में नहीं हुआ था।
ऐतरेय ब्राह्मण-ग्रन्थ के निर्माता महिदास, इतरा नाम की शूद्र स्त्री के कोख से जन्मे थे। (सेन,भारतवर्ष में जातिभेद, पृष्ठ १२, १४, २४) सत्यकाम जाबालि की कथा हम सभी जानते हैं। इन सभी को समाज ने यदि दुत्कारा होता , ठुकराया होता तो क्या हिन्दू समाज इतना समृध्द होता..? अर्थात हिन्दू समाज जन्म की नहीं गुणों की कद्र करता था। ।
वर्ण यह जन्म के आधार पर नहीं थे और उनमें कोई उच्च नीच ऐसा भाव नहीं था। काठकसंहिता में स्पष्ट लिखा है - "ज्ञान व तपस्या इन गुणों से ही मनुष्य ब्राह्मण बनता है।
महाभारत के वन पर्व में नहुष और युधिष्ठिर का संवाद है। इसमें नहुष के प्रश्न का उत्तर देते हुए युधिष्ठिर स्पष्ट रूप से कहते हैं, "हे नागेन्द्र, वर्तमान में सभी जगह वर्ण-संकर होने के कारण किसकी कौन सी जाति हैं। यह कहना कठिन हैं , इसलिए ' इस प्रश्न का उत्तर हैं, 'जिसका चारित्र्य स्वच्छ हो, जो सदाचारी हो और अध्ययन करता हो, वही ब्राह्मण हैं उसके माता- पिता, कुल चाहे जो भी हो.' अर्थात् प्राचीन समय में हमारे हिन्दू समाज में वर्ण भेद या जाति भेद नहीं था , वर्ग भेद था, ऐसा हम कह सकते हैं, कार्य के अनुसार वर्ग बनते थे । वेदों के अनेक सूक्त क्षत्रियों ने लिखे हैं। ऋग्वेद के पहले मंडल के पहले दस मन्त्र मधुच्छंद ने लिखे हैं। वे क्षत्रिय थे। विश्वामित्र ऋषि के लिखे सूक्त ऋग्वेद में हैं। गायत्री मन्त्र के रचयिता भी विश्वामित्र ही हैं। ये गाधी राजा के पुत्र थे , क्षत्रिय थे। यज्ञनिष्ठा, वेद संस्कृति, संस्कृत वाणी यह आर्यत्व के लक्षण थे, फिर कुल कोई भी हो। सीताजी के पिता, राजा जनक ब्रह्मवेत्ता थे, क्षत्रिय होने के बाद भी अनेक ब्राह्मणों को उन्होंने ब्रह्मविद्या सिखायी। वैश्य समाज के अग्रणी महाराजा अग्रसेन क्षत्रिय ही थे। राज व्यवहार चलाने में सभी जाति के लोग रहते थे। महाभारत में भीष्म ने इस बारे में कहा है - राजा के तीन शूद्र मंत्री, चार ब्राह्मण मंत्री, आठ क्षत्रिय मंत्री, इक्कीस वैश्य मंत्री तथा एक सूत मंत्री होना चाहिए. (शांति पर्व ८५/५) ब्राह्मणों से शूद्र मंत्रियों की संख्या मात्र १ से कम हैं अर्थात् प्राचीन काल में, धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक इन सभी क्षेत्रों में समता का तत्व, सामाजिक मूल्य के रूप में प्रस्थापित था। मानव जीवन की सर्वश्रेष्ठ दिग्दर्शिका श्रीमद् भगवद्गीता में योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण ने समभाव , समता, समत्व का सर्वत्र उपदेश किया है। भागवत पुराण में भी "विश्वात्मा हरि:", "सर्वात्मा हरि:", ही प्रतिपादन है। भेदभाव तो कही है ही नहीं। इसका अनुसरण कर समाज एकरस, एकरूप हुआ था और इसीलिए उस समय हिन्दू समाज, दुनिया का सबसे बलशाली समाज माना जाता था। कालांतर में सामाजिक व्यवस्था में अनेक विकृतियां आती गयीं और हिन्दू समाज की ताकत जाती रही...! ( हिंदुत्व १) हमारे प्राचीन काल में हमारे ऋषि, मुनि, संतोंने एक समरस हिन्दू समाज का निर्माण किया, जिसके कारण हम विश्व के सबसे शक्तिशाली राष्ट्र बने, इस सामर्थ्य के पीछे एक और बड़ा कारण था - हमारी राष्ट्रनिष्ठा, हमारे ऋषि मुनियों ने, हमारे पुरखों को राष्ट्रनिष्ठा से जोड़ा। उनके मन में राष्ट्रभक्ति का भाव जागृत किया। अथर्ववेद के पृथ्वी सूक्त में इस देशभक्ति का उत्कृष्ट विचार हैं - यत् ते भूमे विद्यनामि क्षिप्रं तदपि रोह तु । मा ते मर्म विभृग्वरि मा ते हृदयर्पिपम ॥ अर्थ - हे भूमि, मैं जिस जगह पर खोद रहा हूँ, वह शीघ्र ही प्राण तत्व से भर जाए। मेरे द्वारा, आपके मन पर आघात न हो। आप के हृदय को मेरे द्वारा चोट न पहुंचे।
द्विज का अर्थ द्विजन्मा होता है अर्थात् एक बार माता के गर्भ से जन्म और दुबारा वैदिक संस्कारों से संस्कारित होना। वैश्य भी द्विज हैं। आज ही नहीं, शुरू से वैश्य अधिक संख्या में भारतीय संस्कृति और धर्म के प्रबल पक्षधर रहे। भारतीय संस्कृति और हिन्दूधर्म के प्रचार-प्रसार में एवं ब्राह्मण वर्ग को कर्मकाण्ड में प्रोत्साहित करने वाले वैश्यों के प्रयत्नों को कभी नकारा नहीं जा सकता। अथर्ववेदीय गोपथ ब्राह्मण में आता है कि 'धर्मो हैन गुप्तो गोपायति' धर्म को 'गुप्त' ने संजोकर रखा है। इस आधार पर वैश्य जाति के लिए आज जो हमारे स्वजातीय बंधु 'गुप्त' उपनाम लिखते हैं, वह वैदिककालीन लगता है। यहां एक बात ध्यान देने योग्य है कि आज जो लोग गुप्ता लिखते हैं उन्हें गुप्त लिखना चाहिए। व्याकरण की दृष्टि से गुप्त शब्द पुल्लिंग है और गुप्ता स्त्रीलिंग, भारत के अनेकों प्रतिष्ठित साहित्यकार जैसे मैथिलीशरण गुप्त, सियारामशरण गुप्त, कृष्णकुमार गुप्त 'किंशुक', वीरेन्द्रकुमार गुप्त, धर्मेन्द्र गुप्त आदि ने अपने नाम के साथ गुप्त लिखा जो वस्तुतः वैश्य की पहचान है।
कान्यकुब्ज भोजवाल वैश्य समेत सारी वैश्य जातियों का विस्तार पूरे भारत के सभी क्षेत्रों में है। भारत के राजवंशों पर यदि हम दृष्टि डालें तो देखेंगे कि सातवाहन ब्राह्मण थे, गुप्त वैश्य थे, और नंद राजा शूद्र थे। महान विद्वान विष्णुगुप्त चाणक्य को भी वैश्य समाज से संबद्ध बताया जाता है। बनारस में रहने वाले महाकवि जयशंकर प्रसाद भी कान्यकुब्ज वैश्य थे। कहा जाता है कि उनके पिता सुंघनी साहू के नाम से जाने जाते थे और सुंघनी एक प्रकार की तम्बाकू होती है। हरियाणा प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री स्व. श्री बनारसीदास गुप्त ने एक बार सुलतानपुर (उ.प्र.) में वैश्य समुदाय की एक जनसभा को सम्बोधित करते हुए कहा था कि वैश्यों की 352 जातियां हैं। कान्यकुब्ज भोजवाल वैश्य इसी वैश्य समुदाय का एक महत्वपूर्ण अंग है। कान्यकुब्जवैश्य मूलतः कान्यकुब्ज जनपद के निवासी माने जाते हैं जिसे आज कन्नौज कहते हैं। कालान्तर में अन्य समाज के लोगों की भाँति वे भी जीविकोपार्जन की खोज में भारत के विभिन्न प्रान्तों में जाकर बस गये।