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संपादकीय

स्वागत है युवा शक्ति का : अनन्त संभावनाओं के साथ

आज युवा शक्ति को अपने साथ पाकर अन्तर्मन में अपार खुशी का अनुभव हो रहा है। इस समय यदि मैं अपने अन्तर्मन के उद्गार व्यक्त करना चाहूं तो मेरे पास शब्द नहीं हैं। ऐसा लगता है अपने समाज के इन नवयुवकों के आने से हम भी इनके जैसे ओज तेज शक्ति और सामर्थ्य से भर गए हैं। मन में एक बार फिर वही 2005 की उमंग और उत्साह आ गया है जब हमने अयोध्या में जाकर पांचकुण्डीय यज्ञ करके कान्यकुब्ज वैश्य समाज दिल्ली का श्रीगणेश किया था।

आजादी की लडाई में जब अलग अलग राजाओं में वैमनस्यता आ गई थी, अंग्रेज अपना आधिपत्य बढाते जा रहें थे तो महारानी लक्ष्मीबाई ने एक बार युद्ध कौशल दिखाकर लोगों, में नया प्राण फूंका। कवियत्री सुभद्रा कुमारी चौहान ने लिखा -

"बूढे भारत में आई फिर से नई जवानी थी खूब लडी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी । "

साथियों, युवा शक्ति का हम स्वागत करते हैं । इनके आने से हम सब में नया उत्साह आएगा और हम भी इनके साथ एक बार पुनः युवा के जैसी उत्साह और उमंग के साथ अपने समाज की सेवा के लिए तत्पर हो उठेंगें । एक कहावत है कि जब बाप की जूती बेटे के पैर में आ जाय तो बेटा जवान हो गया और कंधे से कंधा मिलाकर चलने वाला उसका दाहिना हाथ हो गया। संस्कृत में कहते हैं- " प्राप्ते हि षोडशे वर्षे पुत्र मित्रवत भवेत्" अर्थात 16 वर्ष होने पर बेटा मित्रवत हो जाता है ।

आज नवयुवक वर्ग हमारे साथ आ गया है तो यह बात चरितार्थ होती दिखाई दे रही है। निश्चित तौर पर इन नवयुवकों के अंदर की शक्ति जाग्रत होगी और अनन्त संभावनाओं के साथ हमारा समाज आगे बढेगा। शिक्षा, स्वास्थ्य और समृद्धि के साथ भोजवाल समाज विकास की बुलन्दियों का स्पर्श करेगा। हमारी इस संस्था को विगत 18 वर्षों से निरन्तर जुडकर मैनें इसे अपना परिवार माना और उसी भावना के साथ इस पत्रिका का संपादन और संस्था का संचालन करता रहा। मैने पाया कि आदरणीय श्री पारसनाथ गुप्ता जी की अध्यक्षता में हम एक सूत्र में बंधे रहे, कभी कोई राजनीति नहीं जबकि अन्य संस्थाओं में राजनीति के कारण वे समाज सेवा के मूल उद्देश्य से भटक जाती हैं। पदाधिकारियों का निहित स्वार्थ संस्था को डुबो देता है। इसका प्रत्यक्ष दर्शन समय समय पर हम कान्यकुब्ज वैश्य समाज की शीर्षस्थ संस्थाओं में देख रहें हैं । यहां समझने की बात यह है कि व्यक्ति का ईगो (अहंकार ) आडे आता है आपसी कलह के कारण समाज पूरी तरह इन संस्थाओं से लाभान्वित नहीं हो पाता। समाज की सेवा ऐसी हो कि उसमें प्रर्दशन न हो, जैसे एक हाथ से दान करो तो दूसरे हाथ को पता न लगे- ऐसी हो सेवा तभी समाज आगे बढेगा । स्वार्थ नहीं परमार्थ का भाव हो, त्याग और समर्पण हो तभी संस्था सफल होती हैं। लेना नहीं, देना सीखिए क्योंकि देने वाला देवता होता है। मैं समझता हूं कि हमारी युवा कार्यकारिणी इन बातों से प्रेरणा लेकर अपने समाज को नई ऊर्जा और उमंग के साथ आगे ले जाएगी। एक बात जो सबसे महत्व की लगती है वह है समभाव होकर, मेलजोल से आपसी सौहार्दपूर्ण वातावरण में अपना कार्य करना । पद महत्वपूर्ण नहीं है, कार्य का महत्व है, शेष बातें भगवान पर आस्था व विश्वास के साथ करना ही अच्छा होगा ।

आचार्य जवाहरलाल गुप्त "चैतन्य "


संस्कारहीन शिक्षा अधूरी है ( सा विद्या या विमुक्तये )

किसी भी समाज के विकास के लिए शिक्षा अनिवार्य है। इस बात पर कोई विवाद नहीं हो सकता और यह भी सच हैं कि मनुष्य का जीवन स्तर बेहतर हो, वह पर्याप्त मात्रा में धन उपार्जित करके अपने परिवार का पालन पोषण करके उनको अच्छी से अच्छी शिक्षा दिला सके । प्रश्न यह हैं कि क्या मात्र परीक्षा पास करके डिग्री प्राप्त करना शिक्षा का मापदण्ड हो सकता है ? ऐसी अवस्था में इतना ज्ञान तो हो ही जाता हैं कि एक अच्छी नौकरी मिल जाय, अच्छा पैसा मिल जाय। आज के माता-पिता भी कुछ हद तक अपने बच्चों से यही उम्मीद करते है।

"मात पिता बालकहिं बुलावहिं । उदर भरै सोइ करम सिखावहिं ।"

आज उच्च शिक्षा प्राप्ति की आँधी ने युवा मस्तिष्क को ऐसा झकझोर कर रख दिया है वह अपनें स्वास्थ्य को भूलकर दिन रात येनकेनप्रकारेण अर्थोपार्जन में लग गया हैं। पर दुख की बात यह है कि भोगेषणा और आधुनिकतम जीवन शैली के कारण शरीर रोगी और मन विक्षेपित हो रहा है। विक्षेपित या अशांत मन में इच्छाओं का अन्तहीन प्रवाह चलता रहता हैं जिससे मनुष्य की शक्ति क्षीण होती रहती है, वह थक जाता है, उसकी बुद्धि स्थिर नहीं रहती । भगवान कृष्ण ने कहा – “ वशे हि यस्य इन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ( गीता ) इस लेख द्वारा युवाओं को यह अवगत कराना हैं कि शिक्षा में मूल्यों (values) का होना अनिवार्य है। गुरुकुल शिक्षा पद्धति में विद्यार्थी के व्यक्तित्व को निखारने का विधान है जिसमें शिक्षा के साथ संस्कारों पर विशेष ध्यान दिया जाता है। मात्र पुस्तकीय ज्ञान से व्यक्तित्व अधूरा रह जाता है। शिक्षा को परिपूर्ण बनानें के लिए भारतीय संस्कृति और संस्कारों की समझ आवश्यक हैं। विद्या वही है जो जीवन में स्वतन्त्रता प्रदान करे न कि बन्धन - 'सा विद्या या विमुक्तये’ | इसलिए केवल सूचनात्मक ज्ञान (informatory knowledge ) प्राप्त करनें से ज्ञान का विस्तार तो हो जाता है, परन्तु मानसिक शान्ति और संतोष का अभाव रहता है और यही बंधन ( bondage) है। भारत की सनातन संस्कृति में इसको दुःख का कारण बताया है और इसे 'अविद्या' या अज्ञान कहा है। इसलिए एक है विद्या और दूसरी अविद्या । अविद्या अर्थात् सांसारिक ज्ञान । जो कुछ हम देखते हैं, सुनते हैं, करते हैं, सब अविद्या का दायरा हैं। यह मनुष्य जीवन के भोग पक्ष से जुडा है। इसी को मोह, अज्ञान अथवा भ्रम कहा गया हैं। इसी अविद्या के प्रभाव में आम व्यक्ति इन्द्रिय सुख को सच्चा सुख मानता हैं जड शरीर को ही आत्मा मानता है । गोस्वामी जी कहते हैं -

“मोह निसा सब सोवनिहारा । देखड़ स्वपन अनेक प्रकारा" ।।

आइये, विद्या को सही अर्थों में जानने का प्रयास करें। विद्या जीवन में अदभुत परिवर्तन लाती हैं। विद्या सत्य का वास्तविक रुप दर्शाती है। यह लौकिक ज्ञान के साथ आध्यात्मिक ज्ञान से तन मन को आलोकित करती हैं। विद्या से विनम्रता आती है। धन की प्राप्ति के साथ साथ जीवन शैली गुणात्मक (qualitative) बनती हैं। सत्य, अहिंसा, शौच, संतोष, स्वाध्यायादि की प्रवृत्ति जाग्रत होती हैं। भोग की संस्कृति से योग की संस्कृति को अपनाने से स्वास्थ्य अच्छा होता हैं । स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मन मस्तिष्क रहता हैं। कहा है- " प्रथम सुख निरोगी काया”। काया या शरीर की निरोगता के लिए मन का स्वस्थ होना जरुरी हैं । शरीर और मन दोनों स्वस्थ हों इसके लिए प्राण अर्थात् श्वास प्रश्वास को चलाने का खूब अभ्यास करना चाहिए । इसी अभयास को प्राणायाम कहते हैं । विद्या वही पढनी चाहिए जिससे सांसारिक सुख के साथ आध्यात्मिक आनंद की प्राप्ति हो । “विद्ययाऽमृतमश्नुते " अर्थात् विद्या से अमृतत्व मिलता हैं। मनुष्य जन्म, मृत्यु और बुठापा के दुःखो से सदा के लिए मुक्त हो जाता है। अतः इस जगत में वही जागता है जो अध्यात्म या योग से जुड गया है। इस जड जगत में सच्चा सुख उस योगी को मिलता है जो स्वार्थभाव से हटकर परमार्थ । का चिंतन करता है, जो सांसारिक प्रपंचो से उपर उठकर अपने हध्दय में अन्तर्यामी परमात्मा का हर क्षण अनुभव करता हैं।

जवाहरलाल गुप्त

शिक्षित और आत्मनिर्भर समाज एक सपना

शिक्षा समाज का दर्पण है । हमारी शिक्षा जैसी होगी वैसा ही प्रतिबिम्ब दुसरों के सामने दिखायी देगा। खासकर व्यवहार और पहचान में । शिक्षा हमेशा किसी भी व्यक्ति या समाज का उच्च स्तर पर ले जाने का काम करती हैं। मेरे अपने करीब 35-40 साल के अनुभव से मैने अपने भुर्जी | भोजवाल समाज की शिक्षा के स्तर को पहचाना और पाया कि हमारे समाज के लोग शिक्षा को ज्यादा महत्व नहीं देते है। जिसके कई कारण है। मुख्य कारण हमारे समाज की कमजोर आर्थिक स्थिति हैं । हमारे समाज के लोग अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा नही दिला पाते हैं। दुसरा, वे लोग ज्यादा शिक्षित भी नहीं हैं। जिस कारण वे अपने बच्चों को सही तरीके से उनका मार्गदर्शन कर सकें । ऐसें मे स्वयं बच्चे अगर अच्छे तरीके से पढ़ सके तो ठीक, नही तो स्कुल जाना ही छोड़ देते हैं । और अपने माता पिता के व्यवसाय जैसे रेहरी, दुकान आदि में सहायता करने में लग जाते हैं। और शिक्षा से वंचित हो जाते हैं। समाज की आर्थिक स्थिति कमजोर होने के कारण लोग अपने बच्चों को अच्छे अच्छे स्कूलों मे भी नही पढा पाते हैं। जिससे उनका भविष्य उज्ज्वल नही हो पाता है । घर, परिवार में कोई पढा लिखा व्यक्ति न होने के कारण शिक्षा के क्षेत्र में मार्गदर्शन मे बहुत कमी होती है। और हमारे समाज के बच्चे जिनमे काबिलियत कूट कूट कर भरी होती है शिक्षा के क्षेत्र में पिछड़ जाते है । और होनहार बच्चों का calibre और आत्मविश्वास स्वतः ही समाप्त हो जाता हैं। मेरा ऐसा मानना है कि हमारे समाज में प्रतिभाओं की कोई कमी नही है । कमी हैं तो उन प्रतिभाओ को निखारने की। मेरे समाज के ज्यादातर लोग जो शहरी क्षेत्र में रहते हैं वे तो अपने बच्चों का मार्गदर्शन कर देते हैं। लेकिन जो लोग ग्रामीण क्षेत्र मे रहते हैं वे अपने बच्चों का मार्गदर्शन करने मे सफल नही हो पाते हैं ऐसे मे अपने समाज के शिक्षित नौकरी पेशा लागों से करबद्ध निवेदन करना चाहता हुं कि अपने अपने क्षेत्र के स्वजातीय बच्चों का मार्गदर्शन अवश्य करें और समाज को शैक्षिक तौर पर मजबूती प्रदान करनें का कष्ट अवश्य करें । मेरे दिल की इच्छा है कि मेरे समाज के बच्चे अच्छा पढ लिख कर सरकारी नौकरियों के साथ साथ खेलकूद, गीत, संगीत, एडवेंचर तैराकी, वकालत, डाकटर, इंजीनियर, IAS, PCS / HCS, Army, Navy, Air force, CISF, CRPF, BSF, ITBP, SSB, Delhi Police अपने अपने राज्यों की पुलिस Para Medical Service आदि विभागों में अपना स्थान बनायें और उपरलिखित उद्देश्यों की पूर्ति के लिये समाज के सम्पन्न लोगो को आगे आकर निम्न सुझावों पर कार्य करना पडेगा। क्योंकि कोई भी काम मुश्किल नहीं होता हैं । एक कहावत के अनुसार — "When the going gets tough, the tough gets going."

  1. अपने अपने क्षेत्र में सभी पढने वाले बच्चों का समूह ( Group) बनाये।
  2. उनको आवश्यकतानुसार किताबे, गााइडस, स्टेशनरी प्रदान करें।
  3. युनिफार्म, शुज, बैग आदि प्रदान करे।
  4. बच्चों को उनकी हौसला अफजाई के लिए प्रशस्ति प्रमाण पत्र, मोमेंटों (momento)) प्रदान करें ।
  5. आवश्यकतानुसार फीस में सहायता करें।
  6. एक शैक्षिक फन्ड का निर्माण करे ।
  7. वाद विवाद प्रतियोगिता कराये ।
  8. स्कूल की खेल कुद ( Indoor & outdoor) प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेने के लिए प्रेरित करें।
  9. Cultural Activities में हिस्सा लेने के लिए प्रेरित करें
  10. NCC/Scouts & Guide में हिस्सा लेने के लिए प्रेरित करें।
  11. जहां सम्भव हो तैराकी skating, cycling, para gliding etc. में हिस्सा लेने के लिए प्रेरित करें।
  12. आत्मनिर्भरता के लिए ITI / Polytechtic courses के लिए Guide करें |
  13. कढाई, बुनाई, टेलरिंग, पेन्टिंग, फैशन डिजाइनिंग, बंकरी, आदि Courses में दाखिला के लिए Guide करें ।
  14. पत्रकारिता, फोटोग्राफी sales and management के कोर्स करके भी अपनी आजीविका को बठा सकते हैं ।
  15. सबसे अन्त में मैं यह भी कहना चाहुगी । कि अपना पारंपारिक व्यवसाय भी अच्छा है। क्योंकि आजकल technology की सहायता से कम परिक्षम और बिना काला पीला । हुए ज्यादा Profit कमाया जा सकता है। अतः मुझे आशा ही नही बल्कि पूर्ण विश्वास है कि उपरलिखित बिन्दुओं पर विचार किया जाये तो मेरा समाज एक दिन बुलन्दियों पर होना । और दुसरा बड़ा कारण हैं समाज के लोगो द्वारा बहुत सारे surname गोंतो का होना। हमारे समाज के लोग जो मुख्यतः उत्तर भारत में निवास करते हैं। निम्नलिखित उपनाम लिखते हैं ।

1 भुर्जी 2 गुप्ता 3 सक्सेना 4 श्रीवास्तव 5 भटनागर 6 माथुर 7 कायस्थ 8 कौशल 9 यज्ञसैनी 10 हलवाई 11 मोदनलाल 12 चन्द्रा 13 चन्द्रवंशी 14 मध्यसिया 15 अग्निवंशीय 16 साहा 17 शाह 18 साव 19 वर्मा 20 प्रसाद 21 सिंह 22 कश्यप 23 राठौर 23 कनोजिया आदि ।और इतने सारे सरनेम होने के कारण लोग एक दूसरे को पहचान नही पाते है । और किसी की भी आर्थिक, शैक्षिक, राजनैतिक, सामाजिक मदद नही कर पाते है। इसीलिए मेरा सुझाव है कि हम सभी को एक सरनेम भोजवाल अपनाना चाहिए जैसे दुसरी कोई जाति के लोग अहीर, अहर यादव, लिखने लगे, धोबी दिवाकर लिखने लगे, चमार हरिजन लिखने लगे, मल्लाह निषाद लिखने लगे, काछी कुशावाहा लिखने लगे, सीवर कश्यप, लिखने लगे आदि आदि । अतः मेरा सभी स्वजातीय भाइयों और बहनों से निवेदन है कि अपने बच्चों के नाम के साथ भोजवाल लिखना शुरु करें। जिससे भविष्य में हमारे पूरे समाज को सरकारी, राजनैतिक, आर्थिक लाभ मिल सके। क्योंकि आज हमारा समाज एक बिखरा हुआ समाज हैं। अतः मेरे इस निवेदन को स्वीकार करें । धन्यवाद

आपका डा० आर पी सक्सेना " भोजवाल " एम. बीए. पी एचडी, अम्बाला

क्या मार सकेगी मौत उन्हें स्व पन्नालाल गुप्ता की स्मृति में

मेरे पिताजी का नाम श्री पन्नालाल गुप्ता था। उनके पिताजी यानी मेरे दादाजी का नाम स्वर्गीय श्री राम प्रसाद गुप्ता था । मेरे परदादा का नाम श्री झगरु प्रसाद गुप्ता था । मूल रुप से वह मसकनवा बाजार गोंडा के रहने वाले थे । उस जमाने में मेरे परदादा अपने इलाके के तहसीलदार थे । किसी प्रकार की कोई कमी नहीं थी। जमीन खेत सब कुछ अच्छा था, मेरे दादाजी हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू, फारसी आदि भाषाओं का ज्ञान रखते थे। काफी विद्वान थे। एक दिन किसी बात पर उनकी अपने पिताजी से कहासुनी हो गई। कोई ऐसी बात जो उनके दिल पर लग गई, वह अत्यंत स्वाभिमानी थे और उन्होनें बिना कुछ लिए अपना घर छोड दिया और नवाबगंज, अयोध्या आकर मेहनत की और एक जमीन का टुकडा खरीदकर यहीं बस गए और शहर के चेयरमेन श्री श्यामलाल अग्रवाल जी के यहां मुनीम की नौकरी करने लगे । यहीं पर उनके चार बेटे और दो बेटियां हुईं जिनमें मेरे पिताजी सबसे बड़े थे। मेरे दादाजी अल्पायु में ही प्रभु चरणों में लीन हो गए और सारी जिम्मेदारी उन्ही के कंधो पर आ गई, और यही कारण रहा कि वह ज्यादा पढ लिख नहीं पाए । कडी मेहनत और ईमानदारी से उन्होने अपने बड़े होने के फर्ज को निभाया। भाई बहनों को पाला पोसा, पढाया, शादी की और एक समय ऐसा आया कि किसी ने इनका साथ नहीं दिया। अपने परिवार के पालन पोषण के लिए उन्हें घर छोडना पडा । कुछ समय आगरा रहे फिर कुछ समय दिल्ली में बिताया, उनका बडा ही संघर्षमय जीवन रहा फिर भी उन्होने हार नहीं मानी और जिंदगी से जद्दोजहद करते रहे, साल 1976 में परिवार सहित वह भिवानी, हरियाणा में आकर बस गए। उनकी नौकरी टी मिल भिवानी में लग गई। जो बिरला ग्रुप की थी और 35 साल तक निरंतर हेल्पर से लेकर मशीनमैन की सेवाएं दी । कडी मेहनत करके हम बच्चों को जितना हो सका पढाया, संस्कार दिए और समाज में खडे होने का हुनर सिखाया, पिताजी बड़े ही विन्रम और सरल दिल वाले व्यक्ति थे। सबसे प्यार से मिलना प्यार बांटना आध्यात्मिक बातें करना उनके स्वाभाव में शुमार था। उन्हे भजन गाने और लिखने का बड़ा शौक था ।

पारिवारिक मजबूरियों ने उन्हे इस क्षेत्र में आगे नहीं बढने दिया किंतु अपना शौक अंत तक बनाये रखा। अपने जमाने में जब जवाबी कीर्तन का काफी बोलबाला था तब वह जवाबी कीर्तनों में अक्सर गाया करते थे, और कहीं ना कहीं गाने का शौक मुझे उनसे ही मिला है। बचपन में वह हमे भजन गाकर सुनाया करते थे, अंत समय में मैने उनसे कुछ गाकर सुनाने को कहा था। उन्होंने धीमी आवाज में बड़े भाव से यह कहा -

"कागा सब तन खाईयों और चुन चुन खाईयों मास, पर दो नैना मन खाईयों इन्हे प्रभु मिलन की आस"

पिताजी ने अपने जीवनकाल में कड़ी मेहनत की थी और अंत तक करते रहे। शायद यही कारण रहा कि उन्हें कोई बीमारी नहीं थी । अंत समय तक स्वस्थ थे किंतु प्रभु को बुलाने के लिए कोई ना कोई बहाना चाहिए। इलाज के लिए अस्पताल गए थे, रात में सीढियों से गिर गए । यही बहाना रहा उनके दुनिया से अलविदा कहने का। उनके चार बेटे नंदकिशोर, बृजकिशोर, जुगलकिशोर, और राजकिशोर, उनके आशीर्वाद से सभी उनके बताए हुए मार्गदर्शन में अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियां निभा रहें हैं। और हमेशा एक दूसरे के साथ खडे रहतें हैं, पिताजी ने हम बच्चों को सिखाया था

'बेटा अपना कर्म करते रहो । फल देना प्रभु के हाथ में हैं, वो जहां भी है उनका आशीर्वाद बना रहे”। यही छोटी सी कहानी हैं हमारे परम आदरणीय प्रभु की । क्योंकि हमने भगवान को नहीं देखा किंतु उनके वात्सल्य को देखा हैं जो किसी भगवान से कम नहीं। आज हम सब जो भी हैं उन्ही की कृपा से हैं। जय श्रीराम ।


नंदकिशोर गुप्ता

मेरे प्रभु राम, मेरे प्रभु राम
जगमग हुआ तुम्हारा धाम
अवधपुर त्रिभुवन में अभिराम
विराजत राम परम सुखधाम
बन गया मन्दिर ललित ललाम ||

मेरे प्रभु राम, मेरे प्रभु राम
बरसों का अस्थायी वास
बन गया सुन्दर सुघर सुवास
काल की गति है अति न्यारी
अलौकिक लीला प्रभु प्यारी
जो करते थे प्रभु का परिहास
हो गया उनका हिरदय उदास
भक्तों में अतिशय है उल्लास
पूर्ण हुई बरसों की अभिलाष ||

मेरे प्रभु राम, मेरे प्रभु राम
देश के जन जन का यह मान
हजारों भक्तों का बलिदान
सनातन संस्कृति की पहचान
करें हम इसका गौरव गान ||

मेरे प्रभु राम, मेरे प्रभु राम
ओ मेरे घट घटवासी राम
संभालो करतल में धनु बान
मिटा दो तमस घोर अभिमान
बसों हिरदय में आठों याम
मेरे प्रभु राम, मेरे प्रभु राम ||


जवाहरलाल गुप्त

A Paradigm Shift

She Traversed the darkest forest
From a sudden fear of trouble, till she found support,
The voice was full of despair, doubting her own sanity,
Living in vain, that she will never be able to pull her out from the dark world,

But every cloud has a silver lining,
That paradigm shift from old era to a new era,
When she starts believing in herself, every single drop of rain seems to be the blessing of God,
Now she sings and swings with the gusty wind,
She understands the worth and kindness of her heart,
a happiness vessel
Changes in season in individual's life have their own sunny sides,

Life is as warm as summer,
State of serenity as in winter,
Shed sad leaves in autumn,
And blossom hopes in spring,
Is a circle of emotions.
Completes the circle of life.

-Yukta Saxena, Ambala

" बेटी पढाओ, बेटी बचाओ " व्यावहारिक पक्ष

महात्मा गांधी ने लडकियों की शिक्षा पर बल देते हुए कहा एक लडकी को पढाना एक परिवार को पढ़ाना है" । भारतीय संस्कृति में भी स्त्री शिक्षा के अनेकों प्रसंग आते हैं जिनमें गार्गो, मैत्रैयी, घोषा, लोपामुद्रा, अपाला, अरुन्धती आदि महान विदुषी हुई हैं। बेटियों की शिक्षा और उनके विकास के लिए भारत सरकार द्वारा अनेकों योजनाएं चलाई जा रही हैं। ” बेटी पढाओं, बेटी बचाओं" बहुत लोकप्रिय है । यह सचमुच समाज के लिय सुखद अनुभूति है।

कितनी प्रसन्नता होती है कि वर्षों की दासता झेल चुकी भारत की महिलाओं ने जब से आजादी की सांस ली, उनकी शिक्षा के प्रति रुझान बडी तेजी से बढी है। परीक्षाओं के परिणाम देखकर तो लगता है कि भविष्य में लडको की अपेक्षा लडकियां बहुत आगे निकल जाएंगी। जहां तक शिक्षा जगत की बात है, लडको की अपेक्षा लडकियां ज्यादा संघर्षशील हैं, उनका सभी विषयों में अंक प्रतिशत अच्छा होता है। सरकार की उत्साहवर्धक योजनाओं ने लडकियों को शिक्षा के लिए प्रेरित किया है। यहां पर यह बात विचारणीय है कि लडकियों की अपेक्षा लडकों में अगर उत्साह कम होगा तो समाज में असंतुलन हो जाएगा। जब लडकियों के लिए योग्य जीवनसाथी नहीं मिलेगा तो कहीं उनको निराशा का शिकार न बनना पडे। आज सच बात यह है कि वैश्य समाज में पढे लिखे योग्य लडकों का संकट उपस्थित हो चुका है। एक योग्य लडकी ने तो कान्यकुब्ज वैश्य समाज के पिछले सम्मेलन में यह प्रश्न उठा ही दिया कि ” बेटी पढाओ, बेटी बचाओं" तो बहुत अच्छी बात है लेकिन अगर लडके उनके अनुसार योग्य नहीं मिलेंगे तो शादी विवाह कैसे होंगे। इसलिए मा बाप के लिए आवश्यक है कि लडकों को भी योग्य बनाएं । ऐसा नहीं कि उनकी शिक्षा बंद करके व्यापार में डाल दें।

स्वस्ति श्री गुप्ता फरीदाबाद